संकट में भारत रत्न बिस्मिल्लाह खां की अनमोल स्मृतियां, रियाज वाले कमरे पर चला हथौड़ा

संकट में भारत रत्न बिस्मिल्लाह खां की अनमोल स्मृतियां, रियाज वाले कमरे पर चला हथौड़ा

वाराणसी 
सितार की झनकार से संसार को चमत्कृत करने वाले पं. रविशंकर की निशानियों और उनसे जुड़ी धरोहरों को गंवाने के बाद अब बनारस भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खां की स्मृतियों को सहेजने वाली धरोहरों को भी खोने के कगार पर है। बेनियाबाग की भीखाशाह लेन स्थित उस्ताद का पैतृक मकान और गंगा किनारे पंचगंगा घाट का बालाजी मंदिर दोनों संकट में हैं। उस्ताद की स्मृतियां न तो घर पर सुरक्षित हैं और न घाट पर। बेनियाबाग स्थित मकान की तीसरी मंजिल पर बना छोटा सा कमरा, जिसमें उस्ताद ने पूरा जीवन बिताया, उसे तोड़ा जा रहा है। जिस कमरे में सुतरी से बुनी खटिया पर बैठे-बैठे उस्ताद ने अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रिगन की अमेरिका में बसने की पेशकश खारिज कर दी थी उसी कमरे से उस्ताद की स्मृतियां खतरा झेल रही हैं। पद्म अंलकरणों से लेकर देश-दुनिया के प्रतिष्ठित पुरस्कारों के प्रमाणात्रों से दमकने वाली कमरे की दीवारों पर वीरानी का सियापा है। वह कमरा भी कब तक खड़ा रह पाएगा यह बता पाना उस्ताद के वंशजों के लिए भी मुश्किल है।

बालाजी मंदिर की दीवारों से रिस रहा पानी
पंचगंगा घाट स्थित बालाजी मंदिर वह स्थान है जहां उस्ताद बिस्मिल्लाह खां रियाज करने जाया करते थे। भोर में साढ़े तीन बजे उस्ताद अपने घर से पंचगंगा घाट के लिए निकल जाया करते थे। वह रोज सूर्योदय होने तक बालाजी मंदिर के नौबतखाने में रियाज किया करते थे। उस्ताद खुद कहते थे मेरी शहनाई के सुरों का सम्मोहन बालाजी का चमत्कार है मैं तो सिर्फ शहनाई में फूंक मारता हूं सुर तो बालाजी निकालते हैं। घाट की ओर से दिखने वाली दीवार के जोड़ जोड़ से पानी रिस रहा है। घाट की ओर खुलने वाले मंदिर के दरवाजे की खूबसूरत मेहराब पर काई जमा हो चुकी है। उल्लेखनीय है कि बालाजी मंदिर के जिस नौबतखाने में उस्ताद रियाज किया करते थे उसकी जमीन कई साल पहले  बैठ चुकी है।

छह साल की उम्र में उस्ताद आए थे बनारस
उस्ताद के सबसे छोटे बेटे नाजिम हुसैन ने बताया कि बिस्मिल्लाह खान के परदादा हुसैन बख्श खान, दादा रसूल बख्श, चाचा गाजी बख्श खान और पिता पैगंबर बख्श खान भोजपुर और डुमरांव रियासतों के लिए शहनाई वादन करते थे। 21 मार्च 1916 को डुमरांव में जन्मे उस्ताद मात्र छह वर्ष की अवस्था में अपने पिता के साथ बनारस आए थे। पहले कुछ साल उन्होंने अपने मामा अली बख्श विलायती के घर में बिताए। विलायती काशी विश्वनाथ मंदिर के नौबतखाने में शहनाई वादन करते थे। अपने मामा से शहनाई का ककहरा सीखने के कुछ सालों बाद उस्ताद अपने परिजनों के साथ रहने बेनियाबाग वाले मकान में आए। 21 अगस्त 2006 को इसी कमरे में उन्होंने अंतिम सांस भी ली। 

जल्द बनारस आकर करुंगी डीएम से भेंट : सोमा घोष
उस्ताद की मानस पुत्री शास्त्रीय गायिका सोमा घोष से ने बताया कि मैंने जब से सुना है कि एक बिल्डर की ओर से कमर्शियल बिल्डिंग बनाए जाने के लिए उस्ताद के आवास पर तोड़फोड़ की जा रही है तब से मैं बहुत चिंतित हूं। उस्ताद ने इसी कमरे में अपनी संगीत की तपस्या की थी। उस कमरे के साथ किसी भी तरह की छेड़छाड़ ठीक नहीं है। पद्मश्री सोमा घोष ने कहा कि इस कमरे को बचाने के लिए वह जल्द बनारस आकर जिलाधिकारी कौशल राज शर्मा से बात करेंगी।

अब भी नहीं हुई है देर : राजेश्वर आचार्य
शास्त्रीय एवं ध्रुपद गायक पद्मश्री डा. राजेश्वर आचार्य कहते हैं स्वतंत्रता सेनानियों का पूरा होने के बांद संगीत सेवियों संगीतक्रांति का बिगुल फूंका था। 15 अगस्त सन 47 को यूनियनजैक की जगह लेने वाले तिरंगे के सामने बनारस के पं. रविशंकर और उस्ताद बिस्मिल्लाह खां ने भी भारतीय संगीत का दुनिया में डंका बजाने की शपथ ली। दोनों ने मिलकर दुनिया के सौ से अधिक देशों में सितार और शहनाई के माध्यम से भारतीय संगीत को प्रतिष्ठा दिलाई। दोनों ही भारत रत्न बने। हम पं. रविशंकर की स्मृतियों को सहेज कर नहीं रख सके लेकिन शासन, प्रशासन और संगीत समाज से जुड़े लोग सक्रिय हो जाएं तो उस्ताद बिस्मिल्लाह खां से जुड़ी धरोहर को हम बचा सकते हैं। अब भी बहुत देर नहीं हुई है।