पड़ोसी राज्यों से चली हवा बदलेगी यूपी की सियासत

पड़ोसी राज्यों से चली हवा बदलेगी यूपी की सियासत

 
लखनऊ

सर्दी के मौसम में भी उत्तर प्रदेश में राजनीतिक तपिश महसूस की जा रही है। हिन्दी भाषी तीन राज्यों से चली राजनीतिक बयार ने यूपी के राजनीतिक दलों को घेर लिया है। दलों की बाहरी और आंतरिक राजनीति में अब बड़े बदलाव देखने को मिलेंगे। कांग्रेस हाशिए से बाहर आएगी, बीजेपी का गुरूर टूटेगा, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन पर कांग्रेस की छाया पड़ेगी। इन सबके बीच छोटे दल अपने को वोट कटवा से वोट जुड़वा में बदलने की कवायद में जुट जाएंगे। 
 
हाशिए पर पड़ी यूपी कांग्रेस को तीन पड़ोसी राज्यों से 'पावर' आपूर्ति हुई है। कांग्रेस की कोशिश इस 'पावर' से अपने जंग खा चुके कलपुर्जों को चलाने की होगी। कांग्रेस की जीत से बीजेपी के साथ सपा और बसपा को भी कम झटका नहीं लगा है। यूपी में दोनों क्षेत्रीय दल कांग्रेस को भाव नहीं दे रहे थे। गठबंधन से भी दूर रखा था। मध्य प्रदेश और राजस्थान में भी सपा, बसपा ने कांग्रेस को झटका देने की पूरी कोशिश की। अखिलेश यादव और मायावती ने कांग्रेस के खिलाफ तीखे बयान दिए। अब स्थिति बदलेगी। कांग्रेस गठबंधन में एक तिहाई हिस्सा मांगेगी। 

वैसे कांग्रेस का एक धड़ा प्रदेश में अब अकेले चुनाव लड़ने के पक्ष में है। साल 2009 में कांग्रेस ने सबको चौंकाते हुए यूपी में सबसे अधिक 22 सीटें जीती थीं। 2019 में इसे दोहराने की कोशिश होगी। परिणामों से ये साफ है कि मोदी को सिर्फ कांग्रेस ही चुनौती दे सकती है। ऐसे में प्रदेश में मुस्लिम वोटों समेत बीजेपी और सपा-बसपा से नाराज अन्य जातियों के वोट कांग्रेस को जा सकते हैं। एससी/एसटी ऐक्ट से नाराज सवर्ण भी कांग्रेस का रुख कर सकते हैं। 

भाजपा
सबसे पहले तो बीजेपी की आंतरिक राजनीति बदलेगी। सीएम योगी को कुछ ज्यादा फ्री हैंड मिल सकता है। संगठन में जो लोग केंद्रीय नेताओं के दम पर योगी के कामकाज में हस्तक्षेप करते हैं, उन पर अंकुश लग सकता है। इसके साथ ही हाशिए पर डाल दिए गए यूपी के नेताओं की पूछ बढ़ेगी। राजनाथ सिंह, कलराज मिश्र, विनय कटियार जैसे पुराने नेताओं से मशविरा और उन्हें साथ लेने की कोशिश होगी। 

मंत्रिमंडल में फेरबदल भी हो सकता है। राम मंदिर के मुद्दे को पार्टी और तूल देगी। इसके साथ बीजेपी की छोटे दलों पर निर्भरता बढ़ेगी। अपना दल का महत्व बढ़ेगा। ओमप्रकाश राजभर को भी मनाने की कोशिशें की जा सकती हैं। एससी/एसटी ऐक्ट से नाराज सवर्णों को मनाने की कोशिशें बड़े पैमाने पर होंगी। सपा-बसपा के संभावित गठबंधन से निपटने के लिए कुछ छोटे दलों को सपा-बसपा के खिलाफ इस्तेमाल करने पर भी जोर होगा। 

समाजवादी पार्टी
समाजवादी पार्टी अस्तिस्व के संकट से जूझ रही है। शिवपाल से चुनौती गंभीर होती जा रही है। यही वजह है कि अखिलेश यादव सपा का वजूद बचाने के लिए मायावती से समझौता करने को तैयार हैं। अब मुश्किल कांग्रेस को लेकर होगी। राहुल गांधी से अखिलेश यादव के संबंध ठीक हैं। लेकिन मध्य प्रदेश और राजस्थान में उन्होंने कांग्रेस के खिलाफ कुछ ज्यादा ही तीखे हमले किए, जो कांग्रेस के नेताओं को काफी अखरे। अब अखिलेश यादव को कांग्रेस के साथ को लेकर काफी माथापच्ची करनी पड़ेगी। पहले तो उन्हें इसके लिए मायावती को मनाना पड़ेगा। फिर कांग्रेस को सीट देने पर अपनी ही सीटों में भारी कटौती करनी पड़ेगी, क्योंकि मायावती तो अपने हिस्से से कांग्रेस को ज्यादा सीटें देने से रहीं। 

बहुजन समाज पार्टी
कांग्रेस की जीत से मायावती की रणनीति भी बदलेगी। मायावती को कांग्रेस से खतरा कम नहीं है। मायावती के पास जो भी राजनीतिक पूंजी है, वो कांग्रेस से छीनी हुई है। ऐसे में कांग्रेस के बदले हुए तेवर से निपटना आसान नहीं होगा। अगर वो कांग्रेस को साथ लेती हैं, तो अपनी सीटों की कीमत पर ऐसा करेंगी। यदि नहीं तो कांग्रेस के अकेले लड़ने पर उससे कैसे निपटेंगी। खासतौर से मुस्लिम और दलित वोटों को बचाने के लिए। 

छोटे दल
शिवपाल एक बार कांग्रेस से हाथ मिलाने की कोशिश कर चुके हैं। आगे भी इसकी संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। राजा भैया भी पूरा दम लगाएंगे। इसी तरह कुछ अन्य छोटे दल भी मौका और माहौल देखकर कांग्रेस या बीजेपी के साथ जा सकते हैं।