आखिर कब बदलेगा बैगा जनजातियों का जीवन स्तर?

आखिर कब बदलेगा बैगा जनजातियों का जीवन स्तर?

मूलभूत, मानव अधिकार और वनाधिकार से आज भी वंचित बैगा समुदाय

rafi ahmad ansari बालाघाट। म.प्र का बालाघाट जिला, यहां निवासरत् बैगा जनजातियों के लिये जाना जाता है। यहां घने जंगलो की श्रृंखला है और इन पर्वतीय इलाको में आदिवासीयों की संरक्षित जातियों में से एक 'बैगा जनजाति' के लोग बडे पैमाने पर निवास करते है। लेकिन यहां रहने वाले बैगा आदिवासीयों की जिंदगी मुसीबतो भरी है। इन्हे जिंदा रहने के लिये रोज एक नया संघर्ष करना पडता है। दक्षिण बैहर के अंतिम छोर से लेकर लांजी तहसील के कुछ हिस्सो में बनी आदिवासी जनजाति के लोगो को देखकर ऐसा लगता है मानो ये बैगा आदिवासी 'आदिकाल' में ही जीवन जी रहे है। जिले की विभिन्न तहसीले परसवाडा, बिरसा, बैहर और लांजी तहसील के के अंतर्गत आने वाले सुुदुर वनांचलो में रहने वाली यह जनजातियां अभी भी मूलभूत सुविधाओं से वंचित है। लांजी तहसील के देवरबेली के टेमनी, सायर-संदूका या बिरसा विकासखंड के घुम्मुर, अडोरी, सोनगुड्डा, दुल्हापुर, लहंगाकन्हार, गिडोरी और भूतना के अधिन आने वाले दर्जनो गांव ऐसे है जहां रहने वाले बैगाओ के हाल आजादी के वर्षो बाद भी फटेहाल स्थिति में है। इनके मूलभूत अधिकार, वनाधिकार और मानव अधिकार का रोजाना हनन हो रहा है, लेकिन शासन प्रशासन को इनके अधिकारो से क्या वास्ता, उन्हे तो बस इनके नाम पर शासकीय राशि से चांदी ही चांदी काटनी है। यही वजह है कि आदिवासी बैगाओ को पानी जैसी मूलभूत सुविधा के लिये दर-बदर की ठोकरे खानी पडती है। इन्हे पेयजल के लिये प्राकृतिक जलस्त्रोतो और झिरिया पर निर्भर होना पड रहा है। ऐसे हालात अधिंकाश बैगा आदिवासी गांवो में देखने मिलेगें। अडोरी के बोंदारी,उर्सेकाल, कोरका और चूकाटोला गांव में रहने वाले बैगा परिवार बताते है कि उनके यहां पर कोई हैंडपप नही और ना ही नलजल की योजना आई है। यह योजना तो आज तक साकार ही नही हो पाई है। जहां मजबूरी में मारे उन्हे नाले और झिरियां का पानी ही निचोडकर अपनी प्याज बुझानी पडती है। वनाधिकार पट्टे भी नही बने- देश में आदिवासीयों की 72 जनजातियों में सबसे पिछडेपन का दंश भोग रहे बैगा जनजाति के लोगो के पास आज भी वनाधिकार के पट्टे नही है, जबकि कई पीढीयों से बैगा जनजाति के लोग घने जंगलो में निवास कर रहे है। इनके सामने सबसे बडी विडम्बना यह है कि ये आज भी पारम्परिक खेती के तौर पर कोदो कुटकी का उत्पादन करते है। जिसके लिये उन्हे वन विभाग की भूमि पर ही कृषि करना पडता है। कई बार विभागीय अधिकारी इन्हे कृषि कार्य करने से रोक देते है। जिससे उनके सामने जीविका उपार्जन के लिये जरूरी भोजन को लेकर भी संघर्ष करने की नौबत आ जाती है। लिहाजा उन्हे वनो से निकलने वाले वनोपज, कंद-मृल से ही अपना गुजारा करना पडता है। यह भयावह तस्वीरे 21 वी सदी के उन बैगा गांव की है जहां आधुनिकरण के बीच सबसे ज्यादा मन को विचलित और कचोटती है। राशन के लिये 15 किमी का सफर करते है बैगा- ग्राम पंचायत अडोरी के बोंदारी और कोरका के बैगा आदिवासीयों को आज भी जीवन उपार्जन के लिये शासकीय अनाज के लिये कोसो दूर पैदल चलना पडता है। लगभग 15 किलोमीटर दूर स्थित अडोरी में चलकर आने के बाद ही बमुश्किल उन्हे राशन मिल पाता है। इसके लिये भी उन्हे कई यातनायें और जद्दोजहद के दौर से गुजरना पडता है। बारिश के दिनो में अक्सर नदी नाले उफान पर होते है तब इनकी समस्यायें और भी ज्यादा बढ जाती है। तब वंहा पर शासन प्रशासन के दावे खोखले और निरर्थक साबित हो जाते है। सबसे बडी समस्या तो इन बैगा समुदायो के जीवन मानक स्तर की है जिनके रहन सहन का तरिका आज भी पारम्परिक है। मैले कुचैले कपडो में, कभी नग्न, तो कभी अर्धनग्न अवस्था में नजर आते बैगा बच्चे, सरकारी व्यवस्थाओ की ना केवल पोल खोलते है, बल्कि 21 वी सदी के भारत की यह 'भूखी नंगी जनता' कई सवालो को जन्म देती है। बैगाओ को देखो तो विचलित हो जाता है मन - हमारी टीम जिला मुख्यालय से लगभग 100 किलोमीटर दूर अडोरी ग्राम पंचायत के बोंदारी गांव पहुचंी जहां पूर्व सांसद ककंर मुंजारे भी आये हुए थे। जब हम बैगाओ के हाल जानने के लिये पहुचे तो उनके नन्हे मुन्ने बच्चो और महिलाओ के हाल देखकर मन विचलित हो गया। जहां सवनूबाई पति तिहारू बैगा अपने तीन माह के बच्चे को गोद में लेकर झिरिया का पानी भरकर पत्थरीली पहाडियों से गुजरती हुई घर पंहुच रही थी। उसके साथ और भी अनेक बैगा महिलायें थी जो झिरिया का पानी निकालते हुए नजर आई। उपसरपंच टोला में रह रहे 10 घरो के बैगा, मुख्य टोला से कटे हुए है। बीच मे पडने वाले नाले पर पुल अधूरा पडा हुआ है, जिससे इनके बीच सम्पर्क टूट गया है। इनका कहना है आजादी के वर्षो बाद भी बैगाओ की जिंदगी में कोई बदलाव नही आया है। शासन की योजनायें तो बहुत है लेकिन ये आज भी झिरिया का गंदा पानी पीने को मजबूर है। इनकी हालत और भी बत्तर होते जा रही है। सरकारे दावे तो बहुत करती है कि विकास किये है, लेकिन सब दावे खोखले है। यहां कई मूलभूत सुविधाओं का अभाव है। ये संरक्षित जनजाति है, इन्हे बचाना है लेकिन इनकी संख्या घटती जा रही है। कंकर मुंजारे, पूर्व सांसद आपने यह जानकारी हमारे संज्ञान में लाई है, हमारा इस ओर विकास को लेकर भरपूर प्रयास रहेगा। दीपक आर्य, कलेक्टर बालाघाट