गोविंद सिंह को सुरखी में मिल रही कड़ी चुनौती
कांग्रेस के पारुल वाइल्ड कार्ड ने भाजपा को प्लान बी की तरफ मुडऩे को मजबूर किया
भोपाल। मप्र में उपचुनावों के बीच सबसे ज्यादा चर्चाओं में रहने वाली सीट सागर जिले की सुरखी विधानसभा बन गई है। कमलनाथ ने 2013 में सुरखी में गोविंद सिंह राजपूत को अपने पहले ही चुनाव में मात देने वाली पारुल साहू केसरी को तुरुप का इक्का बनाया है। पारुल साहू के अचानक भाजपा से कांग्रेस में आने के बाद समीकरण पूरी तरह बदल गए हैं। 7 साल पहले भी दोनों एक-दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़े थे लेकिन तब गोविंद सिंह पंजे के साथ थे तो पारुल साहू फूल के साथ। जगह वही है, वोटर भी वही हैं और नेता भी वही, लेकिन पार्टियां बदल गई हैं। इससे पहले आसान जीत की तरफ बढ़ रहे सिंधिया समर्थक मंत्री गोविंद सिंह राजपूत को अब कड़ी चुनौती मिलती दिखाई दे रही है।
ऐसे में कांग्रेस के इस वाइल्ड कार्ड ने भाजपा को प्लान बी की तरफ मुडऩे को मजबूर जरूर किया है। अब देखना होगा कि पारुल साहू के खिलाफ मैनेजमेंट गुरु मंत्री भूपेंद्र सिंह, जिन पर सुरखी में जीत दिलाने का दारोमदार है, क्या तिकड़म बिठाते हैं। वहीं पारुल अपने पांच साल के कार्यकाल में सुरखी में हुए कामों का प्रचार करेंगी। बांध, सड़कें, तहसीलों और नगर पंचायतों का दर्जा दिलाने जैसे कामों से पारुल एक विकासवादी नेत्री के रूप में सामने आईं थीं। कहा जा रहा है कि 2018 के चुनावों में भाजपा ने उनको टिकट नहीं दिया और इसी का बदला लेने वे कांग्रेस में आई हैं। खबर यह भी है कि राजपूत की उम्मीदवारी से नाराज पारुल साहू को भाजपा के जमीनी नेताओं का समर्थन भी मिल सकता है। ऐसे में भाजपा के थिंक टैंक में लहरें उठने लगीं हैं।
गांव के लोग तक गोविंद से खफा
सुरखी में हो रही व्यूहरचना में इस बार गोविंद ही फंसते नजर आ रहे हैं। उपचुनाव में हालात ऐसे बन रहे हैं कि कोई भी समीकरण गोविंद के साथ देते नहीं दिख रहे। राजपूत बामौरा गांव के रहने वाले हैं उनके गांव के लोग तक उनसे खफा बताए जा रहे हैं। उधर क्षेत्र के कद्दावर भाजपा नेता गोपाल भार्गव के ब्राह्मण वोटों का समर्थन भी गोविंद को मिलना बेहद आसान नहीं है। गोविंद को गोपाल का साथ मिलेगा इस बात में भी संशय जताया जा रहा है। यदि ऐसा नहीं होता तो निश्चित ही भाजपा यहां मझधार में फंसेगी और किनारे लगता कोई और दल ही नजर आएगा।
बसपा भी लगा सकती है दांव
वर्ष 2018 के विधानसभा चुनाव कांग्रेस के टिकट पर गोविंद सिंह राजपूत और भाजपा ने सुधीर यादव को उम्मीदवार बनाया था। गोविंद सिंह चुनाव जीतकर विधानसभा में पहुंचे थे। सिंधिया कोटे से उन्हें सरकार ने मंत्री बनाया। क्षेत्र से कांग्रेस भाजपा के अलावा सपा भी उम्मीदवार खड़े करती आई है। आप पार्टी भी खम ठोंकने पर आमादा है। बसपा भी अब तीसरी ताकत बनने के लिए यहां से दांव लगा सकती है।
जातीय समीकरण असरदार नहीं
सुरखी सीट पर कोई खास जातीय समीकरण असरदार नहीं होता है। प्रत्याशी की जीत में यहां के सभी वर्ग के मतदाताओं का योगदान रहता है। यही कारण है कि सुरखी से बाहरी प्रत्याशी चाहे वह कांग्रेस के हों या भाजपा या फिर अन्य कोई दल के वे जीतते आए हैं। इस बार कांग्रेस और भाजपा यह जरूर चाहेगी कि बसपा या आप आदि क्षेत्र से दमदार प्रत्याशी मैदान में उतारे जिसका फायदा दोनों ही बड़े दलों को मिल सके।
कार्यकर्ताओं से लेकर जनता में असंतोष
सुरखी क्षेत्र में यह बात भी सामने आई है कि पूर्व मंत्री गोविंद सिंह राजपूत का पाला बदलना और 15 माह की कार्यप्रणाली को लेकर क्षेत्र के कार्यकर्ताओं से लेकर जनता में कहीं न कहीं असंतोष दिखने लगा था। सिंधिया को खुश करने के लिए गोविंद ने पाला तो बदल लिया लेकिन अब देखना है कि जनता इस फैसले को किस नजरिए से देखती है।
यहां हावी रहा है धनबल
धनबल हो तो बात बने-सुरखी विधानसभा क्षेत्र में ठाकुर, यादव, मुस्लिम, ब्राह्मण, जैन तथा ओबीसी वोटों का बोलबाल है। हालांकि यहां कभी भी जाति के आधार पर चुनाव नहीं हुए। यहां केवल धनबल चुनाव पर हावी रहा है। क्षेत्र से किसी भी दल के प्रत्याशी की जीत में यहां के सभी वर्ग के मतदाताओं का योगदान रहता है। यही कारण है कि सुरखी क्षेत्र से बाहरी प्रत्याशी चाहे वह कांग्रेस के हों या भाजपा या फिर जनता पार्टी के जीतते आए हैं। जनता पार्टी के टिकट पर चुनाव जीते लक्ष्मीनारायण यादव दो बार, कांग्रेस से पूर्व मंत्री विठ्टलभाई पटेल दो बार चुनाव जीते। वहीं मंत्री भूपेंद्र सिंह ठाकुर और गोविंद सिंह राजपूत को दूसरी बार हार का सामना करना पड़ा।
पारूल साहू पहली बार में ही 141 वोटों से चुनाव जीती थीं। अजा वर्ग का वोट बैंक यहां अन्य वर्गों से ज्यादा है। दो लाख से ज्यादा मतदाता वाले सुरखी में 90 हजार ओबीसी मतदाता है जिसमें कुर्मी, काछी, कुशवाहा ,यादव और तेली शामिल है। लगभग 70 हजार सवर्ण मतदाता में ठाकुर , ब्राह्मण और दांगी मतदाता शामिल है । इसी तरह लगभग 40-50 हजार हरिजन, आदिवासी और मुस्लिम मतदाता है। दो बार क्षेत्र में बहुत कम मतों से हार -जीत हो चुकी है ,98 में खुद गोविंद सिंह मात्र 93 वोट से भूपेंद्र सिंह को हराकर जीते थे जबकि 13 में वह मात्र 141 मतों के अंतर से पारुल साहू से चुनाव हारे थे। इससे क्षेत्र में एक-एक वोट की अहमियत मायने रखती है। इसीलिए क्षेत्र में जातियों के समूह को साधने की पुरजोर कोशिश होती रही है। यहां जातीय आधार पर नहीं प्रत्याशी की सक्रियता और उसके द्वारा कराए गए कामों के आधार पर चुनाव जीता जाता रहा है।
-कौन-कौन रहे विधायक-
1951 ज्योतिषी ज्वाला प्रसाद कांग्रेस
1957 बी बी राय कांग्रेस
1962 बानी भूषण प्रेमनारायण राय कांग्रेस
1967 एनपी राय बीजेएस
1972 गया प्रसाद कबीरपंथी कांग्रेस
1977 लक्ष्मीनारायण यादव जेएनपी
1980 वि_ल भाई पटेल कांग्रेस
1985 विठ्ठल भाई पटेल कांग्रेस
1990 लक्ष्मी नारायण यादव जनता दल
1993 भूपेंद्र सिंह भाजपा
1998 भूपेंद्र सिंह भाजपा
2003 गोविंद सिंह राजपूत कांग्रेस
2008 गोविंदसिंह राजपूत कांग्रेस
2013 पारुल साहू केसरी बीजेपी
2018 गोविंद सिंह राजपूत कांग्रेस