'प्रभु' का राम ही करेंगे बेडा पार...

'प्रभु' का राम ही करेंगे बेडा पार...

सांची में अपने ही मंत्री प्रभुराम की चुनावी नैय्या डुबाने को तैयार

भोपाल। ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ ही कांग्रेस से बागी होकर भाजपा में शामिल होने वाले प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री डॉ. प्रभुराम चौधरी के लिए उपचुनाव कांटो भरा ताज बन गया है। वे सियासी दांव-पेंच में ऐसे उलझ गए है कि उनका चुनाव जीतना मुश्किल बना हुआ है। दरअसल उन्हें उम्मीद थी की भाजपा में शामिल होने के बाद वे सांची विधानसभा क्षेत्र में आसानी से उपचुनाव की बैतरणी पार कर लेंगे, लेकिन विधानसभा क्षेत्र के दिग्गज भाजपाई उन्हें तमाम प्रयासों के बाद भी स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। वहीं कांग्रेसी उन्हें जोरदार चुनौती दे रहे हैं। ऐसे में उन्हें इस बात का डर सता रहा है कि 'अपनेÓ की उनकी चुनावी नैय्या डूबा सकते हैं। गौरतलब है कि मप्र में 27 सीटों पर होने वाले उपचुनाव की तैयारियां शुरू हो गई हैं। पार्टियों ने मोर्चा संभाल लिया है। विधानसभा के जिन 27 क्षेत्रों में उपचुनाव होने वाले हैं, उनमें सांची भी हॉट सीट है। यहां से कांग्रेस विधायक रहे डॉ. प्रभुराम चौधरी ने इस्तीफा देकर भाजपा का दामन थाम लिया है। उन्हें भाजपा सरकार में स्वास्थ्य मंत्री बनाया गया है। ऐसे में पूरी संभावना है कि वही पार्टी के प्रत्याशी भी होंगे। ऐसे में सांची को चुनावी इतिहास में पहली बार नए अनोखे चुनावी समीकरण देखने को मिलेंगे। ऊपरी तौर पर तो यहां सबकुछ सामान्य दिख रहा है, लेकिन चौधरी को भितरघात और बगावत का सामना करना पड़ सकता है। दो डॉक्टरों का रणक्षेत्र दरअसल, एससी के लिए सुरक्षित इस सीट पर दो डॉक्टरों का मुकाबला होता रहा है। भाजपा के डॉ. गौरीशंकर शेजवार और कांग्रेस के डॉ. प्रभुराम चौधरी। दोनों ने भोपाल के गांधी मेडिकल कॉलेज से ही एमबीबीएस किया है। शेजवार छात्र राजनीति में ही संघ से जुड़ गए थे, तो चौधरी को माधवराव सिंधिया राजनीति में लेकर आए थे। दोनों दिग्गजों के बीच छह मुकाबले हुए, जिसमें से चार बार शेजवार, तो दो बार चौधरी विजयी रहे। चौधरी ने तीसरी जीत 2018 में शेजवार के बेटे मुदित पर दर्ज कर प्रदेश में शिक्षा मंत्री की कुर्सी पाई थी। कांग्रेस को नए चेहरे की तलाश अब चौधरी भाजपा में हैं, तो कांग्रेस किसी नए चेहरे को चुनावी रण में उतारेगी, जिससे पहली बार सांची के मतदाता शेजवार और चौधरी के अलावा तीसरा चेहरा देख सकेंगे। हालांकि 2003 में कांग्रेस ने सुभाष बाबू को मौका दिया था, लेकिन वे करीब 21 हजार वोटों से हार गए थे, जो चौधरी की हार के मुकाबले काफी अधिक था। इसी तरह मुदित शेजवार भी नया चेहरा नहीं माने जा रहे, क्योंकि उनका पूरा चुनाव अपने पिता की राजनीतिक जमीन के भरोसे था। अब कांग्रेस के लिए जीत—हार की चुनौती से बड़ी लकीर वोटों के अंतर को कम रखने की भी होगी। जीत की स्थिति में उसे चौधरी को बड़े अंतर से हराना होगा और यदि हार हुई तो भी अंतर कम रखते हुए अपनी जमीन बचानी होगी। कांग्रेस की कांटे से कांटा निकालने की रणनीति हालांकि खबर है कि कांग्रेस कांटे से कांटा निकालने की रणनीति पर आगे बढ़ रही है। सांची में पार्टी के एक वरिष्ठ नेता लगातार गौरीशंकर शेजवार के संपर्क में बताए जा रहे हैं। दोनों की तीन बैठकें भी हो चुकी हैं। कांग्रेस शेजवार को टिकट देना चाहती है, जबकि वह अपने बेटे मुदित को फिर से उतारने के मूड में हैं। यदि ऐसा हुआ तो प्रत्याशी वही होंगे, लेकिन परस्पर बदले हुए दलों से। चौधरी भाजपा, तो मुदित कांग्रेस से। इधर शेजवार भाजपा की चुनाव अभियान समिति के सदस्य हैं और समिति की बैठकों में शामिल भी हो रहे हैं। इतना तो तय है कि शेजवार अपने बेटे के भविष्य को लेकर ही कोई निर्णय करेंगे। यदि चौधरी सांची से जीत जाते हैं तो मुदित का राजनीतिक भविष्य संकट में आ सकता है। हालांकि शेजवार अभी कुछ नहीं बोल रहे। कभी तीसरे को मौका नहीं इसे सांची में हुए विधानसभा चुनावों के आंकड़ों से बेहतर तरीके से समझा जा सकता है। यहां दो प्रत्याशियों के सीधे मुकाबले में कभी तीसरे को मौका ही नहीं मिला। शेष प्रत्याशियों की जमानतें भी कभी नहीं बचीं। पिछले चुनाव में ही कांग्रेस के टिकट पर डॉ. प्रभुराम चौधरी (89,567) ने भाजपा के मुदित शेजवार (78,754) को 10813 वोटों से हराया था। चौधरी के खाते में 51.4 प्रतिशत वोट आए थे। मुकाबला इतना कड़ा था कि बीएसपी, शिवसेना, आप, सपाक्स सहित शेष सभी 10 प्रत्याशी में से कोई जमानत तक नहीं बचा सका था। 2013 में डॉ. शेजवार (85,599) ने चौधरी (64,663) को 20 हजार 936 वोट (13.5 प्रतिशत) से हराया था। शेजवार को 51.1प्रतिशतऔर चौधरी 46.1 प्रतिशत वोट मिले थे। समझा जा सकता है बाकी बचे 10 प्रत्याशियों के हाथ क्या लगा होगा? ये हाल साल 2008 में भी रहा, जब डॉ. चौधरी (51,887) ने डॉ. शेजवार (42,690) को 9197 वोटों से हराया था। इस बार अंतर 7.9 प्रतिशत रहा। साल 2003 में शेजवार (63,334) ने कांग्रेस के सुभाष बाबू (42,528) को 20,806 वोटों 17.9 प्रतिशत से हराया था। शेजवार और चौधरी की बादशाहत सांची में शेजवार और चौधरी की बादशाहत यूं ही नहीं रही। दोनों की दमदारी के चलते ही कोई तीसरा यहां कभी पनप नहीं सका। राजनीतिक तौर पर इसे सफलता माना जाना चाहिए। डॉ. शेजवार ने करीब 44 सालों में यहां ऐसी पकड़ बना ली है कि उन्हें अपने एक-एक कार्यकर्ता का नाम और गांव तक मालूम है। वे जब चाहे खुद गाड़ी चलाते हुए अपने कार्यकर्ताओं के घर पहुंच जाते हैं। पिछले चुनाव में उन्होंने संगठन का काम करने की इच्छा जताते हुए बेटे मुदित को टिकट दिलाया था। बेटे की हार के बाद भी डॉ. शेजवार ने मुदित के साथ क्षेत्र का दौरा करना जारी रखा। उनके प्रभाव का अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और संगठन मंत्री सुहास भगत ने उनसे डॉ. चौधरी के सहयोग का आग्रह किया है। इसी के बाद शेजवार ने चौधारी को अपने आवास पर लंच पर बुलाया था। डॉ. शेजवार पहली बार 1977 में छठी विधानसभा के सदस्य बने। 1980 में भी सीट बनाए रखी। हालांकि 85 में पहली बार मैदान में उतरे डॉ. चौधरी से उन्हें मात मिल गई। डॉ. शेजवार ने 1990 में नौवीं विधानसभा के साथ वापसी की। 1993, 1998 और 2003 में उन्होंने जीत दर्ज की। एक बार फिर 2008 में उन्हें डॉ. चौधरी से हार का सामना करना पड़ा। इसके बाद 2013 में वह सातवीं बार विधान सभा पहुंच सके। कांग्रेस में एक अनार सौ बीमार जहां तक कांग्रेस प्रत्याशी चयन का सवाल है, यहां से दावेदारों की अधिकता के कारण असमंजस की स्थिति निर्मित होती जा रही है। जीत की अच्छी संभावनाओं को देखते हुए कांग्रेस में एक अनार सौ बीमार की स्थिति निर्मित हो चुकी है। अभी तक उपचुनाव में प्रत्याशी बनने के लिए दर्जन भर कांग्रेस नेता अपनी दावेदारी गंभीरता से प्रस्तुत कर चुके हैं। जबकि इतने ही दावेदारो के नाम भी हवा में तैर रहे हैं। हालत यह है कि अभी तक पंच या पार्षद पद पर भी चुनाव नहीं लड़े कार्यकर्ता भी सीधे विधायक पद का चुनाव लडऩे की इच्छा व्यक्त कर रहे हैं और किसी ना किसी माध्यम से अपनी दावेदारी प्रस्तुत कर रहे हैं। कांग्रेस से मदनलाल अहिरवार, किरण अहिरवार, मुन्नीबाई जोहरे, बाबूलाल पंथी और संदीप मालवीय को प्रमुख दावेदार माना जा रहा है पार्टी भी इनके नामों पर गंभीरता से विचार कर रही है। इनमें मदन लाल अहिरवार स्थानीय प्रत्याशी होने के साथ ही जिला पंचायत के सदस्य हैं और सरपंच रहने के साथ मंडी के प्रतिनिधि भी रह चुके हैं। टीकमगढ़ से 1 साल पूर्व ही सांसद का चुनाव हार चुकी किरण अहिरवार भी यहां से अपनी दावेदारी पेश कर रहे हैं। मुन्नी बाई जोहरे भी जनपद पंचायत के अध्यक्ष रह चुकी है और पूरी ताकत के साथ प्रत्याशी बनने की जुगाड़ में लगी है। रायसेन के ही युवा नेता संदीप मालवीय भी अपने स्तर पर पूरा प्रयास कर रहे हैं जबकि बेगमगंज के बाबूलाल पंथी को भी गंभीर प्रत्याशी माना जा रहा है। क्षेत्र का जातीय समीकरण लगभग 50,000 अहिरवार मतदाताओं पर निर्भर है भाजपा के संभावित प्रत्याशी डॉ चौधरी खुद अहिरवार हैं ऐसी दशा में मतों के विभाजन के लिए कांग्रेस को इसी वर्ग से प्रत्याशी उतारना पड़ सकता है। मुस्लिम मतदाता भी क्षेत्र में निर्णायक भूमिका अदा करते हैं और कांग्रेस के परंपरागत वोटर के रूप में स्थापित है। क्षेत्र में काछी, कुर्मी, ब्राह्मण और राजपूत मतदाता बिखरे हुए हैं, उन्हें एकजुट करने से चुनावी समीकरण भी बदल सकता हैं। क्षत्रियों में नाराजगी डॉ. प्रभुराम को लोक स्पास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री बनाने की वजह से इस जिले के क्षत्रिय सुमदाय में मजबूत पकड़ रखने वाले वरिष्ठ विधायक रामपाल सिंह मंत्री नहीं बन सके हैं। इससे क्षत्रिय समुदाय में नाराजगी है। इस नाराजगी के चलते ही भाजपा ने रामपाल को सांची का चुनाव प्रभारी बनाया है। मंत्री न बनने की वजह से रामपाल की सक्रियता भी प्रभावित हुई है। इस बीच गौरीशंकर शेजवार ने उनसे हमदर्दी जताकर उनकी टीस और बढ़ा दी। पटवा भी शांत पूर्व मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा के भतीजे व शिव की पूर्व सरकार में मंत्री रह चुके रायसेन विधायक सुरेंद्र पटवा भी मंत्री न बनाए जाने से खुश नहीं है। यही वजह है कि वे भी पूरी तरह से शांत बने हुए हैं। उनकी वैश्य और मीणा बिरादरी में उनकी मजबूत पकड़ मानी जाती है। सांची में भी इसका लाभ मिल सकता था, लेकिन चौधरी द्वारा अपनी नई टीम बनाने से यह समीकरण भी बेअसर साबित होते दिख रहे हैं।