गड़बडिय़ों और घोटालों का हिमालय इलेक्टोरल बांड

गड़बडिय़ों और घोटालों का हिमालय इलेक्टोरल बांड

-चुनावी चंदे को पारदर्शी बनाने के लिए हुई थी इलेक्टोरल बॉन्ड की शुरुआत

-शुरुआत से ही यह चुनावी बॉन्ड सवालों और विवाद के घेरे में है

-बॉन्ड में गोपनीयता की वजह से कॉरपोरेट द्वारा दुरुपयोग की आशंका

-इससे विदेश से धन आने की संभावना बढ़ी है, जबकि चुनाव आयोग की इस पर रोक है

वित्तीय वर्ष 2018-19 के दौरान, 3 राष्ट्रीय और 22 क्षेत्रीय दलों ने स्वैच्छिक योगदान (दान और चुनावी बांड्स) से कुल 76.82 प्रतिशत (893.60 करोड़) की आय अर्जित की है। 25 राजनीतिक दलों ने कुल मिलाकर 587.87 करोड़ (25 दलों की कुल आय का 50.54 प्रतिशत) की राशि चुनावी बांड्स के माध्यम से प्राप्त किया है जबकि अन्य दान से दलों को 305.53 करोड़ (25 दलों की कुल आय का 26.28 प्रतिशत) की राशि मिली है। देश के राजनीतिक गलियारों में इलेक्टोरल (चुनावी) बॉन्ड का नाम साल 2017 से खूब चर्चा में है। मोदी सरकार ने राजनीतिक चंदे की स्वच्छता व पारदर्शिता के लिए साल 2017 के बजट में इलेक्टोरल बांड लागू किया था। इसके बाद जनवरी 2018 में पहली बार इलेक्टोरल बांड जारी किए गए। अभी तक के हासिल आंकड़ों के मुताबिक मार्च 2018 से अक्टूबर 2019 तक कुल 12,313 इलेक्टोरल बॉन्ड जारी किए गए हैं जिनके द्वारा राजनीतिक दलों को 6,128 करोड़ रुपए का चंदा मिला है। लेकिन यह चंदा किस-किस ने दिया है इसकी जानकारी सार्वजनिक नहीं हो पाई है। यही नहीं जिस तरह प्रधानमंत्री कार्यालय ने वित्त मंत्रालय को निर्देश देकर अपने ही बनाए नियमों का उल्लंघन किया और इलेक्टोरल बॉन्ड की अवैध बिक्री का दरवाजा खोल दिया उससे इलेक्टोरल बांड गड़बडिय़ों और घोटालों का हिमालय बन गया है। भोपाल। चुनाव किसी भी लोकतंत्र के लिए त्योहार सरीखे होते हैं। इसमें बेहतर कल के लिए आम आदमी की आकांक्षाएं और उम्मीदें जुड़ी होती हैं। लेकिन इसी चुनावी प्रक्रिया में कुछ ऐसी चिताएं भी जुड़ी हैं जो बीते सात दशकों से लोकतंत्र के इस पर्व का स्वाद कड़वा कर देती है। पालिटिकल फंडिग और खर्च का सवाल भी चिताओं की फेहरिस्त का हिस्सा है। यूं तो चुनाव में चंदा देना आम बात है। लेकिन ये चंदा कौन दे रहा है? कितना दे रहा है, किसे दे रहा है और क्यों दे रहा है? ये सवाल हर चुनाव में उठते रहे हैं। लेकिन इस बार देश में इलेक्टोरल बांड पर विवाद चरम पर है। इसकी सबसे बड़ी वजह है इसकी अपारदर्शिता और भाजपा को मिलने वाले चंदे में रिकार्ड बढ़ोत्तरी। हालांकि इस व्यवस्था का निर्माण होने के समय ही सरकार की ओर से यह कहा गया था कि यह पूरी तौर पर पारदर्शी नहीं, लेकिन अब उसे लेकर एक विवाद खड़ा हो गया है। इस विवाद का कारण विपक्ष का यह आरोप है कि इस व्यवस्था का लाभ सत्ताधारी दल यानी भाजपा को मिल रहा है। इस आरोप के साथ रिजर्व बैैंक की उस आपत्ति का भी जिक्र किया जा रहा है जो उसकी ओर से चुनावी बांड को लेकर जताई गई थी। अब तक 6,128 करोड़ के बॉन्ड बेचे गए पिछले साल से अब तक देश के 16 राज्यों में भारतीय स्टेट बैंक द्वारा 12 चरणों में कुल 6,128 करोड़ रुपए के इलेक्टोरल बॉन्ड बेचे गए हैं। इसमें से सबसे ज्यादा 1879 करोड़ रुपए के बॉन्ड मुंबई में बेचे गए हैं। दिल्ली में सबसे ज्यादा 4,917 करोड़ रुपये के इलेक्टोरल बॉन्ड इनकैश हुए यानी भुनाए गए हैं। रिटायर्ड कमोडोर लोकेश बत्रा द्वारा दाखिल आरटीआई आवेदन के जवाब में यह जानकारी मिली है। चुनावी बांड से मालामाल हुए 25 दल देश की तीन राष्ट्रीय और 22 क्षेत्रीय दलों ने अपना 50 फीसदी चंदा चुनावी बांड के जरिये वसूला है। इन पार्टियों द्वारा चुनाव आयोग को दिए गए ब्योरे के आधार पर एडीआर रिपोर्ट में यह दावा किया गया है। रिपोर्ट के मुताबिक इन 25 दलों ने वित्त वर्ष 2018-19 के दौरान कुल 1163.17 करोड़ रुपए का चंदा वसूला जिसमें से 593.6 करोड़ रुपये चुनावी बांड से आया। एडीआर रिपोर्ट के मुताबिक ब्योरा देने वाले राष्ट्रीय दलों में बसपा, तृणमूल कांग्रेस और बीजद शामिल हैं। भाजपा, कांग्रेस समेत 35 पार्टियों ने अब तक अपनी आय का ब्योरा चुनाव आयोग को नहीं सौंपा है। इनमें पांच राष्ट्रीय और 30 क्षेत्रीय पार्टियां शामिल हैं। रिपोर्ट के मुताबिक ब्योरा देने वाली 25 पार्टियों ने 893.6 करोड़ रुपये यानी 76.82 फीसदी स्वैच्छिक योगदान, दान और चुनावी बांड के माध्यम से एकत्र किया है। जबकि अन्य दान में 305.53 करोड़ रुपए यानी 25 दलों की कुल आय के 26 फीसदी से अधिक राशि प्राप्त की। तीन राष्ट्रीय दलों में केवल तृणमूल कांग्रेस ने चुनावी बांड के माध्यम से मिले दान का खुलासा किया है। पार्टी को 97.28 करोड़ की राशि मिली है। एडीआर ने कहा, चुनावी चंदे में चुनावी बांड वर्तमान समय में सबसे अधिक लोकप्रिय हो रहा है। गोपनीयता के कारण इसे काफी पसंद किया जा रहा है। आंकड़ों के मुताबिक सबसे अधिक आय 249.31 करोड़ रुपए ओडिशा के बीजू जनता दली की है। इसके बाद 192.65 करोड़ रुपए के साथ तृणमूल कांग्रेस दूसरे और 188.7 करोड़ रुपए के साथ टीआरएस तीसरे नंबर पर है। सबसे ज्यादा फायदा भाजपा को! आलोचकों का कहना है कि ये बॉन्ड भाजपा को सबसे ज्यादा फायदा पहुंचाने वाले साबित हुए हैं। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉम्र्स (एडीआर) ने इलेक्टोरल बॉन्ड व्यवस्था को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। एडीआर की तरफ से पेश वकील प्रशांत भूषण का भी यही तर्क था कि इलेक्टोरल बॉन्ड से कॉरपोरेट और उद्योग जगत को फायदा हो रहा है और ऐसे बॉन्ड से मिले चंदे का 95 फीसदी हिस्सा भाजपा को मिलता है। भाजपा को वित्तीय वर्ष 2018-19 में 20,000 रुपए से अधिक के दान में 743 करोड़ रुपए मिले। यह राशि कांग्रेस समेत छह राष्ट्रीय दलों को प्राप्त हुई चंदे की राशि से तीन गुना अधिक है। 31 अक्टूबर को चुनाव आयोग के सामने दायर हलफनामे में भाजपा ने इस बात का खुलासा किया था। कांग्रेस को चुनावी दान में 147 करोड़ रुपए मिले हैं। यह राशि भाजपा को मिले चंदे का सिर्फ पांचवा हिस्सा ही है। भाजपा को साल 2018-19 में सबसे ज्यादा दान प्रोग्रेसिव इलेक्ट्रोरल ट्रस्ट द्वारा दिया गया। इसने भाजपा को 357 करोड़ की राशि चंदे में दी। नहीं कायम हो पाई पारदर्शिता चुनावी फंडिंग व्यवस्था में सुधार के लिए सरकार ने इलेक्टोरल बॉन्ड की शुरुआत की है। सरकार ने इस दावे के साथ इस बॉन्ड की शुरुआत की थी कि इससे राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता बढ़ेगी और साफ-सुथरा धन आएगा, काले धन पर रोक लगेगी। हालांकि, इस बॉन्ड ने पारदर्शिता लाने की जगह जोखिम और बढ़ा दिया है, यही नहीं विदेशी स्रोतों से भी चंदा आने की गुंजाइश हो गई है। चुनाव आयोग ने भी अपनी टिप्पणियों में इलेक्टोरल बॉन्ड जैसी अज्ञात बैंकिंग व्यवस्था के जरिए राजनीतिक फंडिंग को लेकर संदेह जाहिर किए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इस साल 12 मार्च को हुई सुनवाई में केंद्र सरकार को नसीहत भी दी थी कि इस बारे में केंद्र सरकार गंभीरता से कदम उठाए। इसके बाद से ही इलेक्टोरल बॉन्ड लगातार सवालों के घेरे में है। राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे का सोर्स पता न होने के चलते कॉर्पोरेट चंदे को बढ़ावा मिला। साथ ही विदेश से मिलने वाला धन भी वैध हो गया। इस बॉन्ड के स्रोत का खुलासा करना जरूरी नहीं है। विदेश से चंदा भी संभव! इलेक्टोरल बॉन्ड की शुरुआत करते समय इसे सही ठहराते हुए तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने जनवरी 2018 में लिखा था, इलेक्टोरल बॉन्ड की योजना राजनीतिक फंडिंग की व्यवस्था में साफ-सुथरा धन लाने और पारदर्शिता बढ़ाने के लिए लाई गई है। इलेक्टोरल बॉन्ड फाइनेंस एक्ट 2017 में बदलाव के द्वारा लाए गए थे। वास्तव में इनसे पारदर्शिता पर जोखिम और बढ़ा है। खुद चुनाव आयोग ने इन बदलावों पर गहरी आपत्ति करते हुए कानून मंत्रालय को इनमें बदलाव के लिए लेटर लिखा है। सरकार का कहना है कि इलेक्टोरल बॉन्ड में योगदान किसी बैंक के अकाउंट पेई चेक या बैंक खाते से इलेक्ट्रॉनिक क्लीयरिंग सिस्टम के द्वारा दिया जाता है। सरकार का यह भी तर्क है कि इन बॉन्ड को एक रैंडम सीरियल नंबर दिए गए हैं जो सामान्य तौर पर आंखों से नहीं दिखते। बॉन्ड जारी करने वाला एसबीआई इस सीरियल नंबर के बारे में किसी को नहीं बताता। चुनाव आयोग के जांच दायरे से बाहर लेकिन उक्त सारे प्रावधानों से भी समस्याएं दूर नहीं होतीं। चंदा देने वाली की गोपनीयता और राजनीतिक फंडिंग में अपारदर्शिता बनी रहती है और यह सब चुनाव आयोग की जांच के दायरे से भी बाहर है। केवाईसी होने के बाद भी चंदा देने वाले के बारे में सिर्फ बैंक या सरकार को जानकारी हो सकती है, चुनाव आयोग या किसी आम नागरिक को नहीं। जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 29 सी में बदलाव करते हुए कहा गया है कि इलेक्टोरल बॉन्ड के द्वारा हासिल चंदों को चुनाव आयोग की जांच के दायरे से बाहर रखा जाएगा। चुनाव आयोग ने इसे प्रतिगामी कदम बताया है। चुनाव आयोग ने कहा कि इससे यह भी नहीं पता चल पाएगा कि कोई राजनीतिक दल सरकारी कंपनियों से विदेशी स्रोत से चंदा ले रही है या नहीं, जिस पर कि धारा 29 बी के तहत रोक लगाई गई है। अब क्या है राजनीतिक विवाद इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर एक बार फिर राजनीतिक विवाद शुरू हो गया है। आरटीआई से ही यह खुलासा हुआ है कि रिजर्व बैंक ने इलेक्टोरल बॉन्ड जारी करने को लेकर सरकार को चेताया था। रिजर्व बैंक ने कहा था कि इस तरह के साधन जारी करने वाले अथॉरिटी को प्रभाव में लिया जा सकता है। इसकी वजह से इसमें पारदर्शिता पूरी तरह से नहीं रखी जा सकती। यह मनी लॉन्ड्रिंग एक्ट को कमजोर करेगा। इस पर हमलावर रुख अपनाते हुए कांग्रेस ने भाजपा से यह मांग की है कि वह यह जानकारी सार्वजनिक करे कि उसे इलेक्टोरल बॉन्ड से कितना चंदा मिला है। चुनावी बांड पर रोक लगाने की मांग उधर, उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर कर चुनावी बांड योजना 2018 को लागू करने पर रोक लगाने की मांग की गई है। याचिका में कहा गया है कि इससे राजनीतिक दलों को असीमित कॉरपोरेट दान के दरवाजे खुल गए हैं। इसके अलावा भारतीय के साथ ही विदेशी कंपनियों द्वारा अज्ञात वित्तीय दान दिए जा रहे हैं, जिसका देश के लोकतंत्र पर गंभीर परिणाम पड़ सकता है। राजनीतिक चंदे के लिए चुनावी बांड का इस्तेमाल करना चिंता की बात है क्योंकि ये बांड, धारक बांड की प्रकृति के हैं और चंदा देने वाले की पहचान गुप्त रखी जाती है। याचिका में आगे कहा गया है, ''चुनावी बांड के माध्यम से दान देने वालों के बारे में राजनीतिक दलों को व्यक्ति या कंपनी का खुलासा करने की जरूरत नहीं है। चूंकि बांड धारक उपकरण हैं और उन्हें भुनाने के लिए राजनीतिक दलों के सामने पेश करना पड़ता है इसलिए दल जानेंगे कि उन्हें कौन चंदा दे रहा है। याचिका में कहा गया है, ''केवल आम आदमी को पता नहीं होगा कि कौन किस पार्टी को चंदा दे रहा है। इस प्रकार चुनावी बांड राजनीतिक चंदे में बेनामी लेन-देन को बढ़ावा देगा।Ó दानकत्र्ताओं की गोपनीयता चिंता का विषय चुनावी बॉण्ड राजनीतिक दलों को चंदा देने की एक नई व्यवस्था के रूप में हमारे सामने आया है। सरकार का दावा है कि चुनावी बॉण्ड व्यवस्था से राजनीतिक दलों को गलत तरीके से की जाने वाली फंडिंग के प्रचलन पर रोक लगेगी और उन दलों को ही चंदा दिया जा सकेगा जो इसके योग्य हों। लेकिन सरकार की इस पहल पर कई सवालिया निशान लगने से इसकी सकारात्मकता और पारदर्शिता फिर सवालों के घेरे में है। पिछले दिनों चुनाव आयोग ने चंदा देने वालों के नाम को गोपनीय रखने के संशोधन पर आपत्ति जताई थी। जाहिर है, आयोग को इस बात का डर है कि नाम गुप्त रखने से प्रक्रिया में पारदर्शिता नहीं आएगी जिससे लोकतंत्र पर इसका असर पड़ सकता है। ऐसे में सवाल है कि क्या चुनावी बॉण्ड में दानकत्र्ताओं के नाम की गोपनीयता वाकई एक चिंता का विषय है? क्या नाम की गोपनीयता चुनावी बॉण्ड के चुनावी सुधार के मकसद के विपरीत है? सवाल है कि जहाँ एक तरफ चुनावी बॉण्ड के चलते कई सुधारात्मक कदम सीधे तौर पर दिखते हैं, वहीं दूसरी तरफ इसे लोकतंत्र के लिये खतरा बताने में कितनी सच्चाई है? आइये इन्हीं पहलुओं पर विचार करते हैं। राजनीतिक चंदा हमेशा विवादों में दरअसल, भारतीय राजनीति में चुनावी चंदे का मामला हमेशा ही विवादों में रहा है। कभी इसे राजनीति में कालेधन के उपयोग से जोड़ा जाता है, तो कभी राजनीति के अपराधीकरण के लिए भी इसे दोषी माना जाता है। लेकिन विडंबना है कि आजादी के 70 साल बाद जिस चुनावी बॉण्ड की व्यवस्था की गई उसमें भी पारदर्शिता अपने वजूद की तलाश कर रही है। दरअसल, कई दशकों से सियासी दल चंदा देने वालों के नाम को छुपाने का जो खेल, खेल रहे थे, उसका खात्मा इस चुनावी बॉण्ड के चलते भी नहीं हो सका है। ऐसे में पारदर्शिता के सभी सरकारी दावे महज दावे ही मालूम पड़ते हैं। यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि हर बार पारदर्शिता को सुनिश्चित करने के लिये चंदा देने वालों के नाम उजागर करने की मांग की जाती है लेकिन सियासी दल हर कानून में अपना रास्ता खोज निकालते हैं। 20 हजार रुपए से कम चंदा देने वालों के नाम और चुनावी बॉण्ड में दान दाताओं की पहचान गोपनीय रखने की व्यवस्था इसी का एक पहलू है। कॉर्पोरेट फंडिंग किसी खास फायदे के मकसद ऐसा माना जाता है कि राजनीतिक दलों को कॉर्पोरेट फंडिंग किसी खास फायदे के मकसद से की जाती है। जब कोई कंपनी किसी दल को चंदे के तौर पर धन मुहैया कराती है, तो इसके पीछे चुनाव बाद राजनीतिक और आर्थिक फायदा हासिल करने की नीयत होती है। लेकिन गौर करें कि जब चुनावी बॉण्ड के ज़रिये चंदा देने वालों का नाम किसी दल को पता नहीं चलेगा, तो यह कैसे मुमकिन है कि किसी व्यक्ति या कंपनी को सत्ताधारी दल कोई फायदा पहुँचा सकेगा? जबकि इसके उलट कुछ चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं। हाल ही में, चुनावी बॉण्ड के जरिए राजनीतिक दलों को जो चंदा दिया गया, उसमें से लगभग 95 फीसदी चंदा एक विशेष राजनीतिक दल के खाते में आया। लिहाजा, इस बात की आशंका जताई जा रही है कि भले ही जनता इस बात से अंजान हो कि किस कंपनी ने किस दल को चंदा दिया है। लेकिन राजनीतिक दल अंदरूनी तौर पर इनके नामों से वाकिफ होते हैं। सरकार का स्पष्टिकरण चुनावी बॉण्ड शुरू करने के पीछे सरकार का तर्क यह था कि वे दानदाताओं की पहचान गोपनीय रखकर उन्हें उत्पीडऩ से बचाएंगे। लेकिन सरकार का यह तर्क गलत मालूम पड़ता है क्योंकि केवल सरकार ही वह संस्था है जो चाहे तो दानदाताओं को परेशान कर सकती है और चाहे तो गैर-सरकारी उत्पीड़कों से दानदाताओं को बचा भी सकती है। दूसरी तरफ, सरकार का दावा है कि चंूकि ये बॉण्ड बैंकिंग चैनलों के जरिए खरीदे जाते हैं, लिहाजा यह योजना चुनावी फंडिंग के जरिये कालेधन के प्रवेश पर रोक लगाएगी। लेकिन न केवल सरकार का यह तर्क अस्पष्ट मालूम पड़ता है बल्कि चुनावी फंडिंग में भ्रष्टाचार के बढऩे की भी आशंका जताई जा रही है। मसलन, इस तथ्य पर विचार करें कि चुनावी बॉण्ड में दाता की सौ फीसदी गोपनीयता की बात कही जा रही है। इसमें न तो बॉण्ड के खरीदार और न ही दान प्राप्त करने वाले राजनीतिक दल को दाता की पहचान का खुलासा करना जरूरी है। इसलिए न केवल एक कंपनी के शेयरधारक कंपनी के दान से अनजान होंगे बल्कि मतदाताओं को भी पता नहीं होगा कि कैसे और किसके जरिए एक राजनीतिक पार्टी को वित्तपोषित किया गया है। चुनावी फंडिंग में अपारदर्शिता चिंताजनक भारतीय लोकतंत्र में चुनाव को साफ-सुथरा और पारदर्शी बनाना हमेशा ही चुनौती रही है। यही कारण है कि चुनाव आयोग के साथ-साथ विधि आयोग भी समय-समय पर जनप्रतिनिधित्व कानून, 1951 में संशोधन की सिफारिश करता रहा है। लेकिन चिंता का विषय यह है कि पारदर्शिता के नाम पर सरकार की हर कवायद अधूरी ही साबित हुई है। चुनावी सुधारों पर विधि आयोग की 255वीं रिपोर्ट में कहा गया है कि चुनावी फंडिंग में अपारदर्शिता बड़े दानदाताओं द्वारा सरकार को 'कैप्चरÓ करने जैसा है। राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता जितनी कम होगी, कॉर्पोरेट घरानों के लिए उतना ही आसान होगा कि वे जो बात चाहें सरकार से मनवा सकें। गैर-सरकारी संगठन एडीआर के अनुसार, राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे का 69 फीसदी हिस्सा अज्ञात स्रोतों से प्राप्त होता है। जाहिर है यह आंकड़ा विधि आयोग की फिक्र को और बढ़ाने जैसा है। लिहाजा, पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी के एक सुझाव पर अमल किया जा सकता है। उनके मुताबिक, एक राष्ट्रीय चुनावी कोष बनाया जाए जिसमें सभी दानदाता योगदान दे सकते हैं। कोष में जमा राशि को मिलने वाले वोटों के अनुपात में राजनीतिक दलों के बीच आवंटित किया जाए। इससे न केवल दानदाताओं की पहचान सुरक्षित होगी बल्कि राजनीतिक चंदे से काला धन भी खत्म होगा। बहरहाल, सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि आधी-अधूरी पारदर्शिता के बजाय पूर्ण पारदर्शिता वाली किसी प्रक्रिया पर विचार किया जाए ताकि चुनावी चंदे को भ्रष्टाचार और कालाधन से मुक्त किया जा सके। यह कैसी पारदर्शिता इलेक्टोरल बॉन्ड पर सवाल इसलिए उठ रहे हैं कि एक तो इससे भाजपा को सबसे अधिक फायदा हुआ है। आपत्ति इस बात पर है कि इलेक्टोरल बॉन्ड के ना डोनर का पता है, ना कितने पैसे दिए गए यह पता है, जिसको दिया गया है उसकी भी कोई जानकारी नहीं है। इसके अलावा आरबीआई की आपत्ति ने भी सवाल खड़े किए हैं। एक रिपोर्ट में दावा किया गया है कि आरबीआई की आपत्तियों को किनारे कर मोदी सरकार इल्कटोरल बांड लेकर आई। रिपोर्ट के मुताबिक 28 जनवरी, 2017 को एक अधिकारी ने वित्त मंत्रालय में अपने सीनियर अधिकारियों को एक नोट लिखा, जिसमें गुमनाम डोनेशन को वैध बनाने के लिए आरबीआई अधिनियम में संशोधन को जरूरी बताया। इसके बाद उसने संशोधन से संबंधित एक ड्राफ्ट तैयार किया और अपने वरिष्ठ अधिकारियों के अनुमोदन के लिए भेज दिया। इसके बाद वित्त मंत्रालय की तरफ से आरबीआई को एक पांच लाइन की ई-मेल भेजी गई और प्रस्तावित संशोधन पर राय मांगी गई। 30 जनवरी 2017 को आरबीआई ने आपत्ति जताते हुए एक पत्र लिखा। जिसमें कहा गया कि इलेक्टोरल बॉन्ड और आरबीआई अधिनयम में संशोधन से एक खराब चलन की शुरुआत हो जाएगी। इससे मनी लॉन्ड्रिंग और भारतीय बैंक नोट के प्रति अविश्वास बढ़ जाएगा। यह कदम केंद्रीय बैंकिंग कानून के मूल सिद्धातों को नष्ट कर देगा। आरबीआईने चेक, डीडी और आनलाइन ट्राजक्शन जैसे तर्क भी दिए कि इनके होते हुए आखिर बांड की जरूरत ही क्यों? रिपोर्ट का दावा है कि जिस दिन आरबीआईकी आपत्ति आई उसी दिन राजस्व सचिव हसमुख आदि ने आरबीआई की सब बातों को एक छोटे से नोट के जरिए खारिज कर दिया। जिसके बाद 1 फरवरी को बांड का ऐलान हो गया और एक महीने बाद वित्त विधेयक 2017 को पारित होकर कानून बन गया। इलेक्टोरल बांड: कब क्या हुआ -पहली बार इस योजना की घोषणा 2017 में तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली के बजट भाषण में हुई। - 2 जनवरी, 2018 को नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने विवादास्पद इलेक्टोरल बॉन्ड योजना के नियमों को आधिकरिक रूप से जारी किया था। -दो महीने बाद ही इन नियमों में प्रधानमंत्री कार्यालय के दिशा-निर्देश के अनुसार बदल कर इलेक्टोरल बॉन्ड की अवैध बिक्री की अनुमति दे दी गई। - इलेक्टोरल बॉन्ड योजना का विरोध, रिजर्व बैंक, चुनाव आयोग और देश के समूचे प्रतिपक्ष ने किया था, पर तमाम मुखर विरोध के बावजूद इस योजना को लागू किया गया। -इस योजना के द्वारा भारत की राजनीति में बड़े व्यापारिक घरानों के घुसपैठ को वैधता प्रदान कर दी गई और ऐसे तमाम लोगों को गुमनाम रहते हुए राजनीतिक दलों को चंदा देने का रास्ता खोल दिया गया। - ये बॉन्ड चंदादाता की पहचान को पूरी तरह से गुप्त रखता है। चंदादाता को पैसे का स्रोत बताने की भी बाध्यता नहीं है और इसे पाने वाले राजनीतिक दल को यह बताने की जरूरत नहीं कि उसे किसने यह धन दिया। -उसी दिन इस योजना में एक और बदलाव कर बड़े व्यापारिक घरानों की चुनावी फंडिंग की सीमा को भी समाप्त कर दिया गया। इसका अर्थ ये था कि अब बड़े कारपोरेशन अपनी पसंदीदा पार्टी को जितना चाहें उतना धन दे सकते थे। - प्रधानमंत्री कार्यालय ने वित्त मंत्रालय को निर्देश देकर अपने ही बनाए नियमों का उल्लंघन किया और इलेक्टोरल बॉन्ड की अवैध बिक्री का दरवाजा खोल दिया। - यह काम कुछ महत्वपूर्ण राज्यों के चुनाव से पहले हुआ, जबकि नियम कहते हैं कि इलेक्टोरल बॉन्ड की विशेष बिक्री सिर्फ लोकसभा के चुनाव के दरम्यान ही हो सकती है। -इलेक्टोरल बॉन्ड के नियमों को पहले ही मौके पर तोड़-मरोड़ कर दिया गया, नियमत: पहली बिक्री स्टेट बैंक ऑफ इंडिया द्वारा अप्रैल 2018 में होनी चाहिए थी लेकिन इसे मार्च में ही खोल दिया गया। आपत्तियां एक अन्य आरटीआइ के जवाब से पता चलता है कि भारतीय रिजर्व बैंक और चुनाव आयोग ने इस योजना पर आपत्तियां जताई थीं, लेकिन सरकार द्वारा इसे खारिज कर दिया गया था। आरबीआइ ने 30 जनवरी, 2017 को लिखे एक पत्र में कहा था कि यह योजना पारदर्शी नहीं है, मनी लांड्रिंग बिल को कमजोर करती है और वैश्विक प्रथाओं के खिलाफ है। इससे केंद्रीय बैंकिंग कानून के मूलभूत सिद्धांतों पर ही खतरा उत्पन्न हो जाएगा। चुनाव आयोग ने दानदाताओं के नामों को उजागर न करने और घाटे में चल रही कंपनियों (जो केवल शेल कंपनियों के स्थापित होने की संभावनाएं खोलती हैं) को बॉन्?ड खरीदने की अनुमति देने को लेकर चिंता जताई थी। कानून मंत्रालय का सुझाव एक अन्य आरटीआई द्वारा प्राप्त किए गए दस्तावेजों के मुताबिक, कानून मंत्रालय ने सुझाव दिया था कि न्यूनतम वोट शेयर की आवश्यकता या तो 6 फीसदी होनी चाहिए (मान्यता प्राप्त 52 राज्य और 8 राष्ट्रीय दलों के लिए) या बिल्कुल नहीं (वर्तमान आवश्यकता 1 फीसदी है)। जबकि यह स्पष्ट नहीं है कि 2,487 गैर-मान्यता प्राप्त दलों में से 1 फीसदी वोट शेयर कितनों का है। कुछ लोगों ने यह भी आरोप लगाया है कि चूंकि इन बॉन्ड को बेचने वाला भारतीय स्टेट बैंक खरीदार की पहचान जानता है, इसलिए सत्ता में सरकार आसानी से यह पता लगा सकती है कि बॉन्ड किसने और किसके लिए खरीदा है। सुप्रीम कोर्ट इन बॉन्ड की वैधता पर एक याचिका पर सुनवाई कर रहा है। अब तक बिके चुनावी बॉन्ड वर्ष 2018 में.... मार्च- - 222 करोड़ अप्रैल - 115 करोड़ मई - 101 करोड़ जुलाई - 33 करोड़ अक्टूबर- 402 करोड़ नवंबर - 184 करोड़ वर्ष 2019 में.... जनवरी- 350 करोड़ मार्च - 1366 करोड़ अप्रैल - 2256 करोड़ मई - 822 करोड़ जुलाई - 45 करोड़ अक्टूबर- 232 करोड़ 2016-17 और 2017-18 में कार्पोरेट डोनेशन भाजपा- 1731 डोनेशन -915.59 करोड़ कांग्रेस - 151 55.36 करोड़ एनसीपी - 23 7.737 करोड़ सीपीएम - 141 4.42 करोड़ एआईटीसी - 7 2.03 करोड़ सीपीआई - 8 0.04 करोड़ क्या कहते हैं जानकार - चुनावी बॉण्ड से न केवल पारदर्शिता खत्म होगी बल्कि, इलेक्टोरल बॉण्ड फाइनेंस सिस्टम और कमजोर होगा। इसके जरिए विदेशी पैसा भारत में आ सकता है और यहां तक कि एक दिवालिया कंपनी भी अब राजनीतिक दलों को चंदा दे सकती है। ओपी रावत, पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त -चुनावी बॉन्ड राजनीतिक चंदे के नाम पर काले धन को सफेद धन में तब्दील करने का माध्यम बनेगा। यह अर्थव्यवस्था और लोकतंत्र, दोनों के लिए सबसे बड़ा खतरा है। योगेंद्र यादव,अध्यक्ष स्वराज इंडिया -चुनावी बॉन्ड में पारदर्शिता कहा हैं। पारदर्शिता का तात्पर्य है कि मतदाता को तीन बातें पता होनी चाहिए। एक, चंदा देने वाला कौन है और दो, किस राजनीतिक पार्टी को चंदा दिया जा रहा है और तीन, चंदे की राशि क्या है। मोती लाल बोरा, कांग्रेस नेता -इलेक्टोरल बॉन्ड में कोई पारदर्शिता नहीं हैं। इस बॉन्ड से सिर्फ सत्ताधारी पार्टी को ही फायदा होगा। चुनावी बॉन्ड्स ने चुनावी फंडिंग के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी को रोककर नागरिकों के मौलिक 'जानने का अधिकारÓ का उल्लंघन किया है। इस तरह की अपारदर्शिता जवाबदेही के मूल सिद्धांतों के लिए एक गंभीर झटका है। इसलिए इसे खत्म कर देना चाहिए। जगदीप छोकर, संस्थापक सदस्य एडीआर इंडिया -लोकतंत्र में मतदाताओं को पता होना चाहिए कि किस राजनीतिक पार्टी को किसने और कितना चंदा दिया है और राजनीति में विदेशी पैसे का आना लोकतंत्र एक बड़ा खतरा है। इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम पहले से ही कमजोर विपक्ष को और अधिक कमजोर करेगा। अंजली भारद्वाज, सामाजिक कार्यकर्ता