भोपाल। मप्र में 28 विधानसभा सीटों पर हो रहे उपचुनाव का घमासान चरम पर पहुंच गया है। भाजपा, कांग्रेस, बसपा, सपा के प्रत्याशियों सहित कुल 355 प्रत्याशी मैदान में हैं। 3 नवंबर को 63 लाख 51 हजार 867 मतदाता 19 जिलों के 28 विधानसभा सीटों पर मतदान कर प्रत्याशियों का भाग्य लिखेंगे और 10 नवंबर को मतगणना के बाद जीत-हार की तस्वीर साफ हो जाएगी। उपचुनाव में किसकी जीत होगी और किसकी हार इस पर अभी तो कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन एक बात तो तय है कि राज्यसभा सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया और पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ का राजनीतिक भविष्य दांव पर है। अगर कांग्रेस सभी 28 सीटें जीतती है तो कमलनाथ फिर मुख्यमंत्री बनेंगे और प्रदेश की राजनीति में उनका दबदबा कायम होगा। अगर सिंधिया हारे तो उनका राजनीतिक कद सिमट कर रह जाएगा और शिवराज सिंह चौहान का दबदबा बना रहेंगा।
गौरतलब है कि मप्र में हो रहा उपचुनाव दो नेताओं (कमलनाथ और सिंधिया)के अहम का परिणाम है। सिंधिया और उनके समर्थकों की बगावत के कारण ही ये उपचुनाव हो रहे हैं। देश के इतिहास में पहली बार किसी राज्य की 28 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव हो रहे हैं। इसलिए इसे मिनी विधानसभा चुनाव भी कहा जा रहा है। इस चुनाव में भले ही 355 प्रत्याशी मैदान में हैं, लेकिन दांव पर भाजपा नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया का सब कुछ तो पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ का मप्र में राजनीतिक भविष्य दांव पर लगा है। जिन 28 सीटों पर उप चुनाव हो रहा है, उनमें से 27 पर कांग्रेस के विधायक विजयी हुए थे। इसलिए ज्योतिरादित्य और कमलनाथ के बाद कांग्रेस में भी बैचेनी है।
फायदे में रहेगी भाजपा और शिवराज
कमलनाथ सरकार के केवल 15 महीने में गिरने के बाद सत्ता में आए शिवराज सिंह चौहान की मुख्यमंत्री की कुर्सी बची रहेगी या फिर चली जाएगी, इसका फैसला 10 नवंबर को हो जाएगा। लेकिन एक बात तो तय है कि इस उपचुनाव में भाजपा फायदे में रहेगी। क्यों कि 28 सीटों में से केवल एक सीट पर भाजपा विधायक मनोहर ऊंटवाल के निधन के कारण उपचुनाव हो रहा है। अगर भाजपा एक सीट हार भी जाए तो क्या फर्क पड़ता है। लेकिन यदि 28 सीट में 9 सीट भी भाजपा जीत जाती है, तो उसकी सरकार सत्ता में बनी रहेगी। इस स्थिति में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपनी कुर्सी पर बने रहेंगे। इतना ही नहीं शिवराज को अपने मंत्रिमंडल में खाली हुई जगह को नए नेताओं से भरने का अवसर मिलेगा। ऐसा हुआ तो यह कमलनाथ के लिए दूसरा झटका होगा।
आंकड़ों के आधार पर तो शिवराज सिंह चौहान की कुर्सी के लिए कोई खतरा नहीं दिख रहा है। उसकी वजह यह है कि 230 सीटों वाली मप्र विधानसभा में भाजपा के पास 107 विधायक हैं। ऐसे में उसे बहुमत के लिए 28 में से सिर्फ नौ सीटें जीतने की जरूरत है। लेकिन कांग्रेस को सत्ता में वापसी के लिए सभी 28 सीटें जीतने की जरूरत पड़ेगी। दिसंबर 2018 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को 114 सीटों पर जीत मिली थी, लेकिन विधायकों के टूटने के बाद अब उसके 88 विधायक ही रह गए हैं। अगर दोनों दल उपचुनाव के परिणामों के बाद बहुमत का जादुई आंकड़ा नहीं छू पाते हैं, तो सत्ता की चाबी एक बार फिर बसपा के दो, सपा के एक और चार निर्दलीय विधायकों के पास चली जाएगी। फिलहाल कमलनाथ और शिवराज, दोनों यही दावा कर रहे हैं कि उपचुनावों के बाद उनकी पार्टी को बहुमत मिल जाएगा।
नफा-नुकसान कमलनाथ और सिंधिया को
इस उपचुनाव मैदान में उतरे भाजपा और कांग्रेस के 56 प्रत्याशियों की हार-जीत का प्रभाव सबसे अधिक कमलनाथ और सिंधिया पर पड़ेगा। यानी उपचुनाव का नफा-नुकसान इन्हीं दोनों को उठाना होगा। इसलिए दोनों की राजनीतिक प्रतिष्ठा दांव पर है क्योंकि दोनों को ही इन चुनावों में एक-दूसरे पर बीस सिद्ध करना है और देखने वाली बात यही होगी कि दोनों में से अंतत: उन्नीस कौन साबित होता है। कमलनाथ को फिर से अपनी सरकार बनाना है तो सिंधिया को जनता की अदालत में सरकार गिराने के औचित्य और खासकर ग्वालियर-चम्बल संभाग में अपना प्रभाव यथावत है यह साबित करना है। इन दोनों की प्रतिष्ठा की लड़ाई में यदि कुछ दांव पर है तो वह मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की सरकार, क्योंकि नतीजों के बाद ही यह तय होगा कि सरकार बनी रहेगी या कमलनाथ फिर मुख्यमंत्री बनेंगे।
गौरतलब है कि 2018 में 15 साल का सत्ता का वनवास समाप्त होना कांग्रेस के त्रिकोण पर आश्रित था जिनमें कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया और दिग्विजय सिंह थे। इनमें से एक कोण अब भाजपा के पाले में है, तो सवाल यही है कि उस तीसरे कोण की भरपाई कांग्रेस में कोई एक व्यक्ति कर पाएगा या फिर कुछ नेताओं का मिला-जुला प्रयास फिर से कांग्रेस की सरकार बनने का मार्ग प्रशस्त करेगा। कुछ सर्वे रिपोर्ट से कमलनाथ गदगद हैं और उन्हें भरोसा हो चला है कि फिर से उनकी सरकार बनेगी, इसलिए अब वे एक्शन मोड में आकर आत्मविश्वास से लबरेज होकर फ्रंट फुट पर खेल रहे हैं और स्वयं सारे सूत्र अपने हाथ में विधानसभा चुनाव की तरह रखे हुए हैं। उधर, ग्वालियर के महाराज खुद कहते हैं कि यह उपचुनाव उनका (महाराज) का है। वह अपने कार्यकर्ताओं को भी यही संदेश दे रहे हैं। इतना ही नहीं इस उपचुनाव में डाबरा की जनसभा में ज्योतिरादित्य सिंधिया के मंच से दिखाई दिए आक्रोश ने भी इसी का संकेत दिया है। समझा जा रहा है कि चुनाव का नतीजा अनुकूल न होने पर जहां ज्योतिरादित्य समर्थक नेता किसी सदन के सदस्य नहीं रह पाएंगे, वहीं इसका असर भाजपा में सिंधिया की भावी राजनीति, उनके दबदबे पर भी पड़ेगा। इसके सामानांतर कांग्रेस पार्टी ने भी न केवल चुनाव प्रचार का डिजाइन, बल्कि उम्मीदवार भी कमलनाथ की पसंद के ही उतारे हैं। उपचुनाव में कमलनाथ को पार्टी ने पूरी छूट दी है। इसलिए उपचुनाव का नतीजा अनुकूल न आने पर मप्र की राजनीति में कमलनाथ का पैर जमने में आगे दिक्कतें आ सकती हैं।
कसौटी पर कांग्रेस के ही नेता
इस बार हो रहे उपचुनाव की सबसे बड़ी खासियत यह है की चुनावी कसौटी पर कांग्रेस के ही अधिकांश नेता चढ़े है। बस अंतर इतना है कि कुछ पूर्व हैं जो अब भाजपाई बन चुके हैं और कुछ वर्तमान हैं। दरअसल, उपचुनाव में भाजपा और कांग्रेस की ओर से जो 56 प्रत्याशी मैदान में हैं उनमें से 45 कांग्रेसी पृष्ठभूमि के हैं। इनमें से 25 पूर्व कांग्रेस हैं जो भाजपा की तरफ से चुनाव लड़ रहे हैं, वहीं 20 कांग्रेस की ओर से मैदान में हैं। यानी भाजपा ने जहां 25 तो कांग्रेस ने 9 दलबदलू नेताओं को टिकट दिया है। ऐसे में दलबदलू नेताओं के साथ आए उनके कार्यकर्ता भाजपा के कार्यकर्ताओं के साथ कितना घुल मिल गए हैं। यह एक बड़ा सवाल है। इसी तरह भाजपा के कई दलबदलू नेता भी कांग्रेस के टिकट से चुनाव लड़ रहे हैं। ऐसे में उन नेताओं के समर्थक भाजपा छोड़कर कांग्रेस में आ गए हैं। कांग्रेस में भी भाजपा की तरह ही स्थिति है। ऐसे में दोनों पार्टियों का जोर कार्यकर्ताओं पर फोकस है। दोनों ही पार्टियां भाजपा और कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के बीच तालमेल बिठाने की कोशिश कर रही है।
उपचुनाव में दलबदल की स्थिति का आंकलन इससे भी लगाया जा सकता है कि 28 विधानसभा में से 9 विधानसभा सीटों - मुरैना जिले की सुमावली और अंबाह, ग्वालियर जिले की ग्वालियर पूर्व और डबरा, दतिया जिले की भांडेर, शिवपुरी की करैरा, गुना जिले की बमोरी, सागर की सुरखी और इंदौर की सांवेर सीट पर जिस प्रत्याशी की जीत होगी, वो दलबदल करने वाला नेता ही होगा। इन सीटों पर भाजपा और कांग्रेस दोनों ने दल बदल कर पार्टी में शामिल हुए लोगों को टिकट दिए हैं। यही नहीं, भाजपा ने जहां कांग्रेस से आए 25 नेताओं को टिकट दिया है, तो कांग्रेस ने भाजपा से आए 6, बसपा से आए 2 और बहुजन संघर्ष दल से आए 1 नेता को टिकट दिया है। ये दलबदलू अपनी जीत के लिए जोर लगा रहे हैं, जबकि इनकी जीत-हार पर कमलनाथ और सिंधिया का राजनीतिक भविष्य निर्भर है।
सिंधिया की सल्तनत में सेंध
कमलनाथ और कांग्रेस की सबसे बड़ी रणनीति यह है कि वह किसी भी तरह सिंधिया की सल्तनत में सेंध लगाया जाए। इसके लिए पार्टी ने ग्वालियर-चंबल अंचल पर अपना मुख्य फोकस कर रखा है। गौरतलब है कि गुना और ग्वालियर ये दोनों ही सिंधिया परिवार के परंपरागत संसदीय क्षेत्र रहे हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया के पिता माधवराव सिंधिया पहले ग्वालियर सीट से सांसद चुने गए थे। बाद में भाजपा नेता जयभान सिंह पवैया के मजबूती से उभरने के कारण उन्हें ग्वालियर छोडऩा पड़ा। फिर वे गुना आ गए। माधवराव सिंधिया के निधन के बाद जब से ज्योतिरादित्य ने सियासत में कदम रखा है, तब से गुना संसदीय सीट को राजनीतिक विरासत माना। अब कांग्रेस का गेमप्लान इसी सीट के कोर एरिया में सिंधिया की सल्तनत में सेंध लगाकर ध्वस्त करने का है। गुना की जंग में सिंधिया सल्तनत और दिग्विजय रियासत बड़ा फैक्टर है। गुना की चार में से तीन सीटें अभी सिंधिया समर्थकों से बाहर हैं। इनमें एक सीट पर दिग्विजय के पुत्र जयवर्धन सिंह और एक पर छोटे भाई लक्ष्मण सिंह काबिज हैं। एक सीट पर भाजपा विधायक गोपीलाल जाटव हैं। बमोरी सीट पर सिंधिया समर्थक मंत्री महेंद्र सिंह सिसौदिया चुनाव लड़ रहे हैं। कांग्रेस का गेमप्लान है कि किसी तरह उपचुनाव में सिसौदिया हराया जाए। सिसौदिया यदि हार जाते हैं तो पार्टी स्तर पर भाजपा और कांग्रेस की दो-दो सीटें हो जाएंगी। लेकिन, सिसौदिया की हार सिंधिया के लिए गुना में गेमओवर जैसी होगी। यहां दिग्विजय के पुत्र जयवर्धन सिंह जुटे हुए हैं। हर बूथ तक उनकी पहुंच है। एक बड़ा फैक्टर पूर्व मंत्री कन्हैयालाल अग्रवाल को कांग्रेस प्रत्याशी बनाना है। सिसौदिया पिछली बार 27 हजार वोट से जीते थे, जबकि अग्रवाल निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में 28 हजार से ज्यादा वोट ले गए थे। तब, भाजपा ने अग्रवाल को टिकट नहीं दिया था। वे निर्दलीय उतरे थे। इस बार कांग्रेस ने उन्हें टिकट देकर मैदान में मुकाबला कांटे का कर दिया है।
पूरे ग्वालियर-चंबल अंचल की सियासत ग्वालियर से कंट्रोल होती है। यहां अभी 6 में से 3 सीटों पर उपचुनाव है। इनमें सिंधिया समर्थक दो मंत्री प्रद्युम्न सिंह तोमर ग्वालियर और इमरती देवी डबरा से मैदान में हैं। तीसरी सीट ग्वालियर पूर्व से मुन्नालाल गोयल बाकी विधायक के रूप में भाजपा के टिकट पर हैं। कांग्रेस गेमप्लान के तहत तीनों सीट पर सिंधिया समर्थकों को हराने के लिए ताकत लगा रही है। ग्वालियर में कंट्रोल रूम बनाया गया है। यहां पूर्व मंत्री पीसी शर्मा, लाखन सिंह के साथ रामनिवास रावत, अशोक सिंह को कांग्रेस ने जुटा रखा है। पहले लाखन सिंह को सिंधिया समर्थक माना जाता रहा है, लेकिन सत्ता परिवर्तन के पहले वे सिंधिया से दूर हो गए थे। कांग्रेस के निशाने पर मंत्री तोमर की सीट है, क्योंकि यहां उनके लिए भितरघात के भंवर से भी जूझने की चुनौती है, जो कांग्रेस की राह आसान कर सकती है। यहां पूर्व मंत्री जयभान सिंह पवैया की नाराजगी खत्म नहीं हुई है। पवैया को सिंधिया का विरोधी माना जाता है। पिछली बार वे तोमर से हारे थे। अब तोमर की जीत के साथ पवैया के सियासी कॅरियर पर सवालिया निशान लग जाएगा। इस कारण यहां भितरघात के दांव-पेंच ज्यादा हैं। ग्वालियर ग्रामीण सीट भाजपा के पास है। दक्षिण पर कांग्रेस के प्रवीण पाठक और भितरवार से लाखन सिंह विधायक हैं। सिंधिया समर्थकों के हाथ से उपचुनाव वाली तीन सीटें निकल गईं तो भाजपा के पास एक सीट रहेगी। इस तरह सिंधिया के लिए यहां गेमओवर हो जाएगा।
कमलनाथ के लिए करो या मरो की स्थिति
आम तौर पर किसी भी उपचुनाव के नतीजे से किसी सरकार की सेहत पर कोई खास असर नहीं होता, सिर्फ सत्तारूढ़ दल या विपक्ष के संख्याबल में कमी या इजाफा होता है, लेकिन मप्र में 28 विधानसभा सीटों के उपचुनाव से न सिर्फ सत्तापक्ष और विपक्ष का संख्या बल प्रभावित होगा, बल्कि राज्य की मौजूदा सरकार का भविष्य भी तय होगा कि वह रहेगी अथवा जाएगी इसलिए भी इन उपचुनावों को अभूतपूर्व कहा जा सकता है। प्रदेश की राजनीतिक और प्रशासनिक वीथिका में 28 सीटों पर हो रहे उपचुनाव को कमलनाथ और सिंधिया के भविष्य का चुनाव भी कहा जा रहा है। इसलिए कमलनाथ सत्ता में वापसी की कोशिश में हैं। साथ ही वे भाजपा और सिंधिया को सबक सिखाना चाहते हैं। इस उपचुनाव के माध्यम से कमलनाथ को यह दिखाने का भी मौका है कि मप्र की राजनीति में वे किसी से कमतर नहीं हैं। माना जाता है कि कमलनाथ के कारण ही सिंधिया समर्थक मंत्री और विधायक पार्टी से बाहर हुए और सरकार गिर गई। इसलिए कमलनाथ के ऊपर सबसे बड़ी जिम्मेदारी है कि वे उपचुनाव में अधिक से अधिक सीटें जीतकर कांग्रेस को सत्ता में वापस लाएं। कमलनाथ के लिए ये शायद आखिरी मौका है कि वो मप्र का सीएम बन पाएं। कमलनाथ अब 74 साल के हो गए हैं और जब तक मप्र में अगले विधानसभा चुनाव होंगे नाथ की उम्र 77 साल हो चुकी होगी। कांग्रेस में भी राहुल गांधी फिर से कमान संभाल सकते हैं और शायद वो 2023 चुनाव में मुख्यमंत्री पद के लिए नया चेहरा चुन सकते हैं। इसलिए कमलनाथ के लिए ये करो या मरो वाली स्थिति है।
उपचुनाव नहीं महासंग्राम है
मप्र की 28 सीटों का उपचुनाव नहीं, महासंग्राम है। दरअसल, मप्र में इतनी अधिक सीटों पर उपचुनाव सात महीने पुराने एक बड़े राजनीतिक घटनाक्रम की वजह से हो रहे हैं, इसी साल मार्च महीने में पूर्व केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस से अपना 18 साल पुराना नाता तोड़कर भाजपा में शामिल हो गए थे। उनके साथ कांग्रेस के 19 विधायकों ने भी कांग्रेस और विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा देकर भाजपा का दामन थाम लिया था। उसी दौरान तीन अन्य कांग्रेस विधायक भी पार्टी और विधानसभा से इस्तीफा देकर भाजपा में शामिल हुए थे, इन तीन में से दो को पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह का और एक विधायक को पूर्व सांसद मीनाक्षी नटराजन का समर्थक माना जाता था। कुल 22 विधायकों के पार्टी और विधानसभा से इस्तीफा दे देने के कारण सूक्ष्म बहुमत के सहारे चल रही कांग्रेस की 15 महीने पुरानी सरकार अल्ममत में आ गई थी। सरकार को समर्थन दे रहे कुछ निर्दलीय, सपा और बसपा के विधायकों ने भी कांग्रेस पर आई इस आपदा को अपने लिए अवसर माना और वे पाला बदल कर भाजपा के साथ चले गए। प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद भाजपा के शीर्ष नेता पहले दिन से दावा करते आ रहे थे कि वे जिस दिन चाहेंगे, उस दिन कांग्रेस की सरकार गिरा देंगे। उनका दावा हकीकत में बदल गया, कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई।
विधानसभा की प्रभावी सदस्य संख्या के आधार पर भाजपा बहुमत में आ गई और इसी के साथ एक बार फिर सूबे की सत्ता के सूत्र भी उसके हाथों में आ गए, इसी बीच तीन विधायकों के निधन की वजह से विधानसभा की तीन और सीटें खाली हो गईं और कांग्रेस के तीन अन्य विधायकों ने विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफ़ा देकर भाजपा का दामन थाम लिया, इस प्रकार विधानसभा की कुल 28 सीटें खाली हो गईं। जिन पर उपचुनाव हो रहा है। चुनाव कमलनाथ बनाम ज्योतिरादित्य सिंधिया का फ्लेवर लिए हुए है। चुनावी सभाओं में दोनों नेताओं को केंद्र बिन्दु में रखकर आरोप-प्रत्यारोप लगाया जा रहा है। अब देखना यह है कि 10 नवंबर को किस नेता के राजनीतिक भविष्य पर ग्रहण लगा है।